फ़ासलों को तकल्लुफ़ है हम से अगर हम भी बेबस नहीं बे-सहारा नहीं
ख़ुद उन्ही को पुकारेंगे हम दूर से रास्ते में अगर पाँव थक जाएँगे
हम मदीने में तन्हा निकल जाएँगे और गलियों में क़स्दन भटक जाएँगे
हम वहाँ जा के वापस नहीं आएँगे ढूँडते ढूँडते लोग थक जाएँगे
जैसे ही सब्ज़ गुम्बद नज़र आएगा बंदगी का क़रीना बदल जाएगा
सर झुकाने की फ़ुर्सत मिलेगी किसे ख़ुद ही पलकों से सज्दे टपक जाएँगे
नाम-ए-आक़ा जहाँ भी लिया जाएगा ज़िक्र उन का जहाँ भी किया जाएगा
नूर ही नूर सीनों में भर जाएगा सारी महफ़िल में जल्वे लपक जाएँगे
ऐ मदीने के ज़ाएर ख़ुदा के लिए दास्तान-ए-सफ़र मुझ को यूँ मत सुना
बात बढ़ जाएगी दिल तड़प जाएगा मेरे मोहतात आँसू छलक जाएँगे
उन की चश्म-ए-करम को है इस की ख़बर किस मुसाफ़िर को है कितना शौक़-ए-सफ़र
हम को ‘इक़बाल’ जब भी इजाज़त मिली हम भी आक़ा के दरबार तक जाएँगे
- Allama Iqbal
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उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा.
धूल चेहरे पे थी और आईना साफ़ करता रहा
Umar Bhar Ghalib Yahi Bhool Karta Raha
Dhool Chehare Pe Thee Aur Aaeena Saaf Karata Raha
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